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Saturday May 18, 2024
Aryavart Times

शहरों में चाकरी से अच्छी है गांव में खेती

शहरों में चाकरी से अच्छी है गांव में खेती

मंजुला सिन्हा की रिपोर्ट

कुछ मत पूछिए जनाब!.सब कुछ बदल गया और काफी कुछ सिखा दिया कोरोना महामारी ने। नुकसान के साथ नए अंदाज में जीने को मजबूर कर दिया।  रही बात कारोबार की तो शहर की नौकरी से अच्छी गांव की खेती। जी हां! कुछ ऐसा अनुभव बयां करता दिख रहा है बसैठा गांव..।

बसैठा गांव की आबादी करीब 10 हजार है। बिहार में नारायणी नदी के पास प्राचीन लिच्छवी गणराज्य की केंद्र स्थली बसैठा गांव के बाहरी इलाके में खुली दुकानों और चहल पहल को देखकर लगा कि शायद लोग कोरोना वायरस को लेकर ज्यादा गंभीर नहीं है। लेकिन दो घंटे बाद गांव के अंदर जाते ही उक्त धारणा बदल गई, जब गलियों में सन्नाटा था और लोग नियमों का सख्ती से पालन कर रहे थे । 

गांव में एक दरवाजा खटखटाने पर मकान के अंदर से निकले युवक ने 'आर्यावर्त टाइम्स' को अपना नाम सतीश साह बताया। उन्होंने बताया कि वे बीए उत्तीर्ण हैं..दिल्ली में निजी कंपनी में पंद्रह हजार रुपये महीना की नौकरी करते थे, लेकिन कोरोना वायरस फैलने को देखते हुए 12 मार्च को गांव लौट आए थे और उसके बाद गेहूं कटाई भी की । कंपनी ने मार्च का वेतन दिया, लेकिन अप्रैल के वेतन का पता नहीं मिलेगा भी या नहीं। कुछ भी हो शहर की नौकरी से गांव की खेती अच्छी है। हम दो भाईयों पर चार बीघा जमीन है। अब दिल्ली नहीं जाएंगे, भाई के साथ मिलकर खेती करेंगे।

कुछ ही किलोमीटर आगे कमलपुरा गांव के केदार शर्मा कहते हैं- मीडिया से हैं, अच्छा है, गांव में घूम आइए कहीं कोई घर से बाहर मिले तो हमसे कहना। बोले कि यह जरूर छापना कि लॉकडाउन में लूट मची है। बीस की चीज पचास रुपये में मिल रही है। दुकानदार और कहते हैं कि लेना हो तो ले नहीं तो राह पकड़ो। किसानों की कौन सुने ।

बसरा गांव की रासो देवी कहती है-नाश हो इस करोना का। गांव के जगिरिया चौक पर बेटा चाय की दुकान करता था, लेकिन डेढ़ माह से दुकान बंद है। घर में बहू कहतीं है कि अम्मा मास्क लगा लेगा। हे भगवान! कैसा जमाना आ गया इंसानों जाबी लगाना पड़ गया।

कोविड-19 वैश्विक महामारी के चलते देश के समक्ष आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया है और खेती किसानी पर दबाव बढ़ गया है जिन्हें इस वर्ष प्राकृतिक आपदा जैसे- असमय बारिश, ओलावृष्टि, तेज तूफान से काफी संकट का सामना करना पड़ा है। ऐसे समय में तालाबंदी से देश के सब्जी, फल, दूध, मुर्गीपालक, मत्स्य पालक, मधुमक्खी किसान भयानक आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। किसानों के पास न तो रबी की कटाई की मजदूरी की समुचित व्यवस्था है और न ही खरीफ की फसल की बुवाई हेतु नकदी है जो समस्या को और गंभीर बना रही है । 

लॉकडाउन भारत में ऐसे समय शुरू हुआ जब रबी की फसल कटाई के लिए तैयार थी और खरीफ का भी कार्य धीरे-धीरे शुरू हो चुका था। देश के तमाम हिस्सों से तस्वीरें आईं कि किसानों ने सड़ने वाली फसलों विशेष रूप से फल और सब्जियों को जनता में बाँट दिया या फिर उसकी जुताई कर दी। इसका मुख्य कारण था कि फल और सब्जियाँ खेत से निकल नहीं पा रहीं थी ।

ग्रामीण क्षेत्रों में इनके भंडारण के लिए भी कोई खास इन्तजाम नहीं है। सब्जी व फलों के भाव तेजी से गिरावट आई है। बची-खुची आस लॉकडाउन 2 में समाप्त हो गई थी। इसका मुख्य कारण था मांग में कमी और खरीददार का न होना रहा है। परिवहन बन्द होने से भी फल व सब्जियों के दाम गिरे हैं। हालांकि भारत सरकार को गृह मंत्रालय द्वारा कृषि से जुड़ी गतिविधियों पर छूट दी । लेकिन लॉकडाउन के दौरान माग में कमी आने से दूध और दुग्ध उत्पादों, मांस-मछली आदि की कीमतों में काफी गिरावट आई है। 

किसानों की सब्जी के दाम टमाटर, गोभी, लौकी, तुरई, तरबूज, खीरे के दाम उनकी खेत की तुड़ाई व ढुलाई से भी नीचे आ गए। ऐसे में किसानों ने खड़ी फसलों को नष्ट कर दिया। दूध की मांग में अचानक व्यावसायिक गतिविधियाँ जैसे- चाय, हलवाई की दुकान, शादी समारोह व अन्य आयोजनों के रूक जाने के कारण भारी कमी आयी।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा व्यापक आर्थिक पैकेज घोषित किया गया है जिसमें खेती किसानी, पशुपालन, दुग्ध व्यवसाय, मधुमक्खी पालन को बढ़ावा देने की पहल के साथ मनरेगा के तहत ग्रामीण रोजगार को बढ़ावा देने के लिये अलग से 40 हजार करोड़ रूपये देने की बात कही गई है। लेकिन इसमें सबसे बढ़ी समस्या पैकेज को धरातल पर उतरने की है ।  







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