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Saturday April 27, 2024
Aryavart Times

कोरोना वायरस महामारी की दूसरी लहर पर सवार दुनिया..

कोरोना वायरस महामारी की दूसरी लहर पर सवार दुनिया..

(लेखक : निर्मल यादव वरिष्ठ पत्रकार एवं स्वास्थ्य मामलों के जानकार)

आधी रात को अचानक फोन की घंटी बजी। दूसरी तरफ से मद्धम आवाज आयी ’’भाई मुझे बचा लो सांस नहीं ले पा रहा हूं। किसी अस्पताल में दाखिला करा दो। पत्नी और इकलौते बेटे को भी कोरोना हो गया है।‘‘  यह करूण पुकार किसी दूर के रिश्तेदार या परिचित की नहीं थी। बल्कि, उस पड़ोसी की थी जिसका पड़ोसी होने पर मैं खुद को खुशकिस्मत समझता हूं।

यह हकीकत है उस देश की राजधानी दिल्ली की, जिसके मुखिया तरक्की की सरपट राहों पर मुल्क को गामजन करने की बातें करते अघाते नहीं हैं। खैर, रात भर की जद्दोजेहद के बाद पड़ाेसी को अस्पताल में जगह तो मिल गयी, लेकिन अस्पतालों के दरवाजे पर दस्तक देती एंबुलेंस में मर रहे मरीजों की तस्वीरों ने आज के दौर की जमीनी हकीकत से रूबरू करा दिया। सर्वव्यापी संकट के इस दौर में ऐसे अनुभवों से हम सभी, कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में दो-चार हो रहे है। 

याद कीजिये, लगभग ऐसी ही तस्वीर पिछले साल, इन्हीं दिनों यूरोप में उभरी थी। दुनिया की सर्वश्रेष्ठ स्वास्थ्य सेवाओं का दंभ भरने वाले इटली, ब्रिटेन और फ्रांस का चिकित्सा तंत्र महज सप्ताह भर में भरभरा के ढह गया था। इसी की पुनरावृत्ति  दिल्ली और मुंबई सहित भारत के तमाम शहरों में आज हो रही है।         

यकीनन, संकट अब विकराल हो चला है लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है। इस पर भी गौर करना लाजिमी है। आज जब दुनिया भर के अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी हुई तो समूची कायनात छाती पीट रही है। हमारे बीच मौजूद अनगिनत असंतुष्ट और असंतृप्त आत्मायें सोशल मीडिया पर सरकारों की लानत मलानत कर अपना ग़ुबार निकाल रही हैं। 

मगर..हम कथित समझदार लोग इतनी मामूली सी बात सोचने की ज़हमत क्यों नहीं उठाते हैं कि ऑक्सीजन की कमी से तो हमारी पूरी धरती बीते कई सालों से जूझ रही है। दूषित और घुटन भरी आबोहवा, गंदगी से बजबजाते नदी नाले और विनाशकारी सैलाब का दरिया धकेलते पहाड़ों से धरती को हो रहे कष्ट का क्या कोई अंत है? इस कष्ट का अंत शायद तब तक कोई नहीं सुझा पाएगा जब तक कि समस्या की जड़ को न टटोला जाये। जड़ में जाने पर पता चलता है कि दुनिया भर में कुछ मुठ्ठी भर लोगों के पाप का प्रायश्चित हम सभी जीव जंतुओं को करना पड़ रहा है। इस पाप में प्रत्यक्ष और परोक्ष भागीदारी, इंसानी जमात में शरीक होने के नाते, हम सब की है।   

जरा सोचिये, हमारे अपने ही समाज के कुछ ‘बड़े लोग’ जब नदी, पहाड़, जंगल और कुओं, तालाबों पर कब्जा करके ख़ुद फटेहाल से धनपशु बन रहे थे, तब हम ‘समझदार लोग’ इंसान के भेष में विचरण कर रहे इन भेड़ियों को अपना माई बाप स्वीकार कर उनकी तस्वीरें अपने ड्रॉइंग रूम की पेशानी पर चस्पा कर रहे थे। और, ऐसा करके हम आत्ममुग्ध भी हो लेते हैं। मगर मजे की बात तो ये है कि आत्ममुग्धता के इस दौर में ही, हम, कब आत्महंता बन गये, हमें पता ही नहीं चला। 

इसका कारण भी बिल्कुल साफ है। दरअसल.. हमारी धरती मां के इन गहनों की लूट खसोट के समय हमें ये सोचने की फुरसत ही कब मिली कि असल में ये डाका हमारी जिंदगी की सांसों पर डाला जा रहा है। इसीलिये यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिये कि कोरोना, वस्तुत: कुछ और नहीं बल्कि महज हम सबकी उस नासमझी का नतीजा है जिसने हमें आपदा की आहट के वक्त भी रेत में गर्दन घुसेड़े पंक्षी बनने पर मजबूर कर दिया है। 

ध्यान है न, पिछले साल लॉकडाउन हटने के बाद हमने किस आपाधापी में महामारी को दरकिनार कर कुदरत पर अपने कुठाराघात को पहले से अधिक तेज कर दिया। अब, जबकि धरती की ऑक्सीजन सूख रही है तब हमें अपने लिये ऑक्सीजन के सिलेंडर की कमी अखर रही है। ऑक्सीजन का मास्क लगा कर अब 5जी के सहारे कर लो दुनिया मुठ्ठी में। 

यह सही है कि जब हम इंसानो की देह में ऑक्सीजन का स्तर 90 से नीचे होता है तो हम छटपटाने लगते हैं। चंद घंटो में अगर ऑक्सीजन का सिलेंडर ना मिले तो ज़िंदगी का सूर्य अस्ताचलगामी हो जाता है। मगर ज़रा सोचिए.. बीते कई दशकों से बढ़ते ताप की तपिश से जूझ रही धरती की पीड़ा को क्या हमने एक बार भी महसूस किया? 

यह भी सोचें कि धरती पर ऑक्सीजन की कमी से उपजी पर्यावरण संकट की इस आग को ठंडा करने के लिए क्या हमारी विज्ञान ने ऑक्सीजन का कोई सिलेंडर ईजाद किया? ..और साथ ही यह भी सोच लेना कि धरती के ताप को संतुलित करने वाली नदियों की बालू और पहाड़ों पर पत्थर के तथाकथित ‘अवैध खनन’ को रोकने के लिए अब कहीं कोई चिपको आंदोलन क्यों नहीं होता है? 

खैर, अपने छोटे से दिमाग पर इतना जोर न डालें। अब वक्त रुदाली करने का नहीं है। 

मगर धनपशुओं के सच्चे अनुयायी बनकर, वातानुकूलन में जा चुके हम मध्यमवर्गीय लोग, कुछ सामान्य सी बातें तो स्वीकार कर ही सकते हैं। मसलन .. ज्ञान विज्ञान का यह कोई गूढ़ रहस्य नहीं है कि नदी के आसपास बिखरी पड़ी बालू, पर्यावरण की निचली सतह में सर्द-गर्म का संतुलन कायम करती है। धरती की तनिक ऊपरी सतह के लिए यही काम, छोटे और मंझोले पहाड़ करते हैं। और, इसके भी ऊपर की सतह के लिये ताप संतुलन की जिम्मेदारी हिमालय, आल्प्स और किलिमंजारो जैसे विशालकाय पर्वत पूरी करते हैं।

अतीत और वर्तमान पर थोड़ा सा गौर फरमायें तो सहज भाव से हम सब यह स्वीकार कर लेंगे कि नदी, तालाब और झीलों का सीना चीर कर निकाली गयी बालू, छुटभैयों के उदर में समा गयी। वहीं, छोटे बड़े पहाड़ों को चार धाम सड़क परियोजनाओं के नाम पर हमारे विकास पुरुष ‘‘गड़करी जी’’ की कथित विकास लीला ने लील लिया है। 

एक अनुमान के मुताबिक संसार की कुल आबादी में ऐसे विध्वंसक विकास परक लोगों की भागीदारी तकरीबन बारह फीसदी है। विकास के इस माॅडल से मुठ्ठी भर लोगों का निजी विकास जरूर हुआ मगर, शेष जीव जगत की गुजर बसर निरंतर संकटग्रस्त होती चली गयी। इस विनाशलीला में जनसामान्य का दोष इतना सा ही है कि नदी, पहाड़ और जंगलों को नेस्तनाबूद किये जाते समय हम सब, शीत हिमालय की तरह अविचलित होकर मौन धारण कर चुके हैं। अब धरती को बांझ बनाकर उसका सर्वस्व लूटने वाले संसार के तीन फीसदी ‘बड़े लोगों’ और नौ फीसदी स्थानीय धनपशुओं की करतूतों का दुष्परिणाम भुगतना ही, वस्तुत: कोरोना संकट का सामना करना है। 

इन खरीखोटी बातों का मकसद सिर्फ इतना है कि समस्या की पृष्ठभूमि पूरी तरह से उजली हो जाये। यह तो तय है कि इस संकट का तात्कालिक समाधान किसी के पास नहीं है। अंधेरे में उम्मीद की किरण सिर्फ यह हो सकती है कि हम इस पृष्ठभूमि को अपने जेहन में जरूर रखें। इससे मन भयाक्रांत नहीं होता है, बल्कि कंक्रीट के उगाये अपने जंगलों में हम, पश्चाताप के लिये उद्वेलित हों और हमारे मानस में एक पौधा रोपने की ललक जोर मारने लगे।

बेशक, हम सब यह तो मानते ही हैं कि एक पौधा पेड़ बनकर कई ऑक्सीजन सिलेंडरों से ज्यादा साफ हवा देता है, थके मांदे बटोही को शीतल छांव देता है और छोटे बड़े का भेद किये बिना, हम सब को देता है अपने फल फूल ...... बदले में यह सब कुछ, हम सभी जीवों के मन को परम संतोष से भर देता है।

इसलिये नर हो, न निराश करो मन को। अभी भी वक्त है संभलने का। बल्कि यूं कहें कि यही यथेष्ठ समय है उठ कर खड़े होने का। सही को सही और गलत को गलत कहने के साहस से भर जाने का।

निसंदेह, हम सब, सही और गलत के भेद को बखूबी जानते है। उसे अंतर्मन से स्वीकार भी करते हैं। सिर्फ मन की बात को जुबान तक लाने का साहस खो बैठे हैं हम।

चिंता न करें, इसमें गलती हमारी नहीं, लार्ड मैकाले की है, जिसके बनाये शिक्षातंत्र को हम आज तक ढोने के लिये अभिशप्त हैं। तकरीबन डेढ़ सौ साल पहले बनाया गया यह शिक्षातंत्र हमें पीढ़ी दर पीढ़ी नौकरी के नाम पर गुलाम मानसिकता के संस्कारों से पोषित कर रहा है। 

बेशक, यह दौर गंभीर संकट का है। लेकिन, तनाव या अवसाद में जाकर इससे पार पाना मुमकिन नहीं है। इसलिये सिर्फ तार्किक तौर पर सोचना शुरु करें, समस्या की परतें प्याज के छिलकों की तरह स्वत: उधड़ना शुरु हो जायेंगी और समाधान भी दिखने लगेगा।

आईये, अपने दीपक स्वयं बनें.. ’’उत्तिष्ठ जागृत‘‘







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