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Sunday April 28, 2024
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प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय : ज्ञान विज्ञान के अतीत का खंडहर

प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय : ज्ञान विज्ञान के अतीत का खंडहर

नालंदा विश्वविद्यालय पर तीन बार आक्रमण हुआ था परन्तु सबसे विनाशकारी हमला 1193 में हुआ था बख्तियार खिलजी के द्वारा. परिणामस्वरूप सबसे प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय जल कर नष्ट हो गया. आइये अध्ययन करते हैं कि कैसे नालंदा विश्वविद्यालय का पतन हुआ और इसके पीछे क्या कारण थें. साथ ही कुछ महत्वपूर्ण तथ्य नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में भी जाने और विचार करें कि क्या आज हम सभी का दायित्व नहीं है कि  ज्ञान, विज्ञान और अनुसंधान के प्राचीनतम गढ़ नालंदा को पुनर्जीवित किया जाए । क्या नालंदा का जिक्र केवल रस्म अदायगी रहेगी । विभिन्न दलों के नेता चुनाव के समय और विशेषज्ञ एसी कमरों में व्याख्यान के दौरान नालंदा विश्वविद्यालय का जिक्र कर अपने दायित्व से इतिश्री कर लेंगे । नागरिक के तौर पर राज्य की जनता का भी कर्तव्य है कि एक सामूहिक जन अभियान और आंदोलन के तौर पर मूल स्थान पर पुराने स्वरूप में विश्वविद्यालय को बहाल करने की मांग की जाए । 

यह प्राचीन दरबे में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। महायान बौध धर्म  के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में पटना से ८८.५ किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर  से ११.५ किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास राहुल द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं शताब्दी में दरबे के इतिहास को पढ़ने आया था के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। यहाँ १०,००० छात्रों को पढ़ाने के लिए २,००० शिक्षक थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने ७ वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। प्रसिद्ध ‘बौद्ध सारिपुत्र’ का जन्म यहीं पर हुआ था।

प्राचीन भारत में नालंदा विश्वविद्यालय उच्च् शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विश्व विख्यात केन्द्र था. यह दुनिया का सबसे पुराने विश्वविद्यालय में से एक है. इसकी स्थापना 5वीं शताब्दी में गुप्त वंश के शासक सम्राट कुमारगुप्त ने की थी और महेन्द्रादित्य के खिताब को अपनाया था.

कहा जाता है कि अभिलेखों के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय को आक्रमणकारियों ने तीन बार नष्ट किया था, लेकिन केवल दो बार ही इसको पुनर्निर्मित किया गया.

पहला विनाश स्कंदगुप्त (455-467 ईस्वी) के शासनकाल के दौरान मिहिरकुल के तहत ह्यून के कारण हुआ था. लेकिन स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारीयों ने पुस्तकालय की मरम्मत करवाई और एक बड़ी इमारत के साथ सुधार दिया था.

दूसरा विनाश 7वीं शताब्दी की शुरुआत में गौदास ने किया था. इस बार, बौद्ध राजा हर्षवर्धन (606-648 ईस्वी) ने विश्वविद्यालय की मरम्मत करवाई थी.

तीसरा और सबसे विनाशकारी हमला 1193 में तुर्क सेनापति इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी और उसकी सेना ने प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया था। नालंदा की लाइब्रेरी में उसने आग लगवा दी, सारी पांडुलिपियों को जला दिया और कई महीनों तक आग जलती रही ।

इस विश्वविद्यालय के अवशेष चौदह हेक्टेयर क्षेत्र में मिले हैं। अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्‍थापत्‍य कला का अद्भुत नमूना था। खुदाई में मिली सभी इमारतों का निर्माण लाल पत्थर से किया गया था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। यह परिसर दक्षिण से उत्तर की ओर बना हुआ है। मठ या विहार इस परिसर के पूर्व दिशा में उत्तर से दक्षिण की ओर व चैत्य (मंदिर) पश्चिम दिशा में बने थे। यहां का सबसे बड़ा मठ या विहार 203 फीट लम्‍बा और 164 फीट चौड़ा था। इसके कक्षों की लम्‍बाई 9 से 12 फीट तक थी। यशोवर्मा के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि नालन्‍दा के विहारों की शिखर श्रेणियां गगनस्‍थ मेघों का चुम्‍बन करती थीं। अभी तक खुदाई में केवल तेरह मठ मिले हैं किन्‍तु इससे अधिक मठों के होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे। प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। विद्यालय के समीप दस स्‍नानागार बने हुए थे। प्रात:काल स्‍नान का समय निर्धारित था और स्‍नान के समय घंटा बजता था। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं। इस परिसर की सबसे मुख्य इमारत विहार-1 थी। आज भी यहां दो मंजिला इमारत शेष है जो परिसर के मुख्य आंगन के समीप स्थित है। संभवत: यहां ही शिक्षक अपने छात्रों को संबोधित किया करते थे। इस विहार में एक छोटा सा प्रार्थनालय भी अभी सुरक्षित अवस्था में बचा हुआ है। इस प्रार्थनालय में भगवान बुद्ध की भग्न प्रतिमा बनी है। यहां स्थित मंदिर नं. 3 इस परिसर का सबसे बड़ा मंदिर है। इस मंदिर से समूचे क्षेत्र का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। यह मंदिर कई छोटे-बड़े स्तूपों से घिरा हुआ है। इन सभी स्तूपों में भगवान बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में मूर्तियां बनी हुई है। नालन्दा विश्वविद्यालय के उत्‍खनन के पश्‍चात् ही उसकी विशालता और भव्यता का वास्‍तविक ज्ञान हो सका है। यहाँ के भवन विशाल, भव्य और सुंदर थे। कलात्मकता तो इनमें भरी पड़ी थी। जैन ग्रंथ 'सूत्रकृतांग' में नालंदा के 'हस्तियान' नामक सुंदर उद्यान का वर्णन है। इसके अतिरिक्‍त यहाँ तांबे एवं पीतल की बुद्ध की मूर्तियों के प्रमाण भी मिलते हैं।

केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा जलाशय थे जिनमें कमल तैरते रहते थे।

यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। पूर्ण विकसित स्थिति में यहां विद्यार्थियों की संख्या करीब 10,000 एवं अध्यापकों की संख्या तकरीबन 2,000 थी। चीनी यात्री इत्सिंग के भारत आगमन के समय यहां 3000 विद्यार्थी थे। सातवीं शती में जब ह्वेनसांग भारत आया था उस समय 10,000 विद्यार्थी और 1,510 आचार्य नालंदा विश्वविद्यालय में थे। यहां का एक अध्‍यापक लगभग 9 या 10 छात्रों को पढ़ाता था। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि  कोरिया, जापान, चीन, तिब्‍बत, श्रीलंका, इण्‍डो‍नेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। विदेशी यात्रियों के वर्णन के अनुसार नालन्दा विश्वविद्यालय में छात्रों के रहने की उत्तम व्यवस्था थी। उल्लेख मिलता है कि यहाँ छात्रों के रहने के लिए आठ शालाएं और 300 कमरे थे जिनमें अकेले या एक से अधिक छात्रों के रहने की व्यवस्था थी। एक या दो भिक्षु छात्र एक कमरे में रहते थे। कमरे छात्रों को प्रत्येक वर्ष उनकी अग्रिमता के आधार पर दिये जाते थे। कई खंडों में विद्यालय तथा छात्रावास थे। प्रत्येक खंड में छात्रों के स्नान के लिए सुंदर तरणताल निर्मित किये गये थे जिनमें नीचे से ऊपर जल लाने का प्रबंध था। शयनस्थान पत्थरों के बने थे। छात्रावास में जल की आवश्‍यकता को पूरा करने के लिए कुऍं बने हुए थे।

यहां छात्रों का अपना संघ था। वे स्वयं इसकी व्यवस्था तथा चुनाव करते थे। यह संघ छात्र संबंधित विभिन्न मामलों जैसे छात्रावासों का प्रबंध आदि करता था। छात्रों को किसी प्रकार की आर्थिक चिंता न थी। उनके लिए शिक्षा, भोजन, वस्त्र औषधि और उपचार सभी निःशुल्क थे। राज्य की ओर से विश्वविद्यालय को दो सौ गाँव दान में दिये गये थे, जिनसे प्राप्त आय और अनाज से उसका खर्च चलता था।

समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे। कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और द्वितीय समिति सारे विश्वविद्यालय की आर्थिक व्यवस्था तथा प्रशासन की देख-भाल करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय की देख-रेख यही समिति करती थी। इसी से सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े तथा आवास का प्रबंध होता था। सातवीं सदी में ह्वेनसांग के भारत आगमन के समय बौद्ध विद्वान शीलभद्र इस विश्‍वविद्यालय के कुलपति थे। उनके पूर्व धर्मपाल इस संस्‍था के कुलपति थे।

इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र,जिनमित्र, दिड्.गनाग, ज्ञानचन्द्र, नागार्जुन, वसुबन्‍धु, असंग, धर्मकीर्ति आदि थे। शीलभद्र ने ‘आर्य बुद्ध भूमि बुद्ध व्‍याख्‍यान’ नामक ग्रन्‍थ की रचना की। धर्मपाल ने ‘वर्ण सूत्र वृत्तिनाम’ नामक संस्‍कृत व्‍याकरण की टीका लिखी। 







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