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Sunday April 28, 2024
Aryavart Times

कोरोना का एक साल : सरकार की दुविधा और दुश्वारियां

कोरोना का एक साल : सरकार की दुविधा और दुश्वारियां

लेखक वरिष्ठ पत्रकार निर्मल यादव )

कोरोना वायरस के कहर को झेलती दुनिया के लिये एक साल का अनुभव मिले जुले परिणामों वाला रहा। विश्व की अधिसंख्य आबादी ने इस वायरस के साथ कदमताल मिला कर शायद चलना सीख लिया है। इसके समानांतर कोरोना वायरस ने भी पिछले एक साल के दौरान देश, काल और परिस्थितियों के मुताबिक अपने रूप खूब बदले। 

समय के साथ खुद को अपडेट करते कोरोना वायरस के इस गुण को विज्ञान की भाषा में भले ही म्यूटेशन कहते हों लेकिन आम बोलचाल की भाषा में यही कहा जायेगा कि इस घातक वायरस और इंसानी जमात के बीच चोर सिपाही जैसा खेल बदस्तूर जारी है। यह सही है कि विश्व बिरादरी ने एकजुट होकर कोरोना वायरस को नेस्तनाबूद करने के लिये वैश्विक बंदी (लॉकडाउन) को एक कारगर हथियार के तौर पर इस्तेमाल जरूर किया। इससे इतर यह भी गलत नहीं है कि सरकारों के तमाम प्रयासों के बावजूद पिछलेे एक साल से आम जन, कोरोना को चकमा देने की जुगत सीखने में लगा है। जो इस वायरस की चपेट में आ गये उन्हें कमजोर प्रतिरोधक क्षतमा वाला माना गया और जो संक्रमण से अब तक बचे रहे उन्हें खुशनसीब समझा गया।   

शायद, इसी का नतीजा है कि लॉकडाउन लगने के ठीक एक साल बाद, एक बार फिर कोरोना की दुश्वारियाें से दुनिया घिरती जा रही है। सोचने वाली बात यह है कि आखिर पिछले साल की ही तरह इस साल भी अमेरिका, यूरोप और भारत पर कोरोना का कहर कुछ ज्यादा ही दिख रहा है। खासकर, भारत के बारे में अगर लॉकडाउन के असर की तटस्थ और निष्पक्ष समीक्षा की जाये तो इसे स्वीकारने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिये कि पिछले छह महीने में सरकार और जनता के स्तर पर भरपूर कोताही बरती गयी। कोरोना के जंजाल से किसी तरह बाहर आये दिल्ली, महाराष्ट्र और गुजरात में संक्रमण तेजी से बढ़ने लगा है। वजह साफ है कि इन इलाकों और इनके अलावा अन्य इलाकों में लोगों ने कोरोना के खतरे को पूरी तरह से नजरंदाज कर दिया है। 

एक सप्ताह पहले तक आलम यह था कि दिल्ली और मुंबई सहित अन्य सभी छोटे बड़े शहरों में मास्क और सेनिटाइजर का इस्तेमाल गुजरे जमाने की बात हो गयी थी। ग्रामीण क्षेत्रों का तो कहना ही क्या है, सर्वानुमति से यह मान लिया था कि कोरोना, गांव वालों का कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। इससे इतर, कोरोना से अब तक महफूज दिख रहे बच्चे भी संक्रमण के दूसरे चरण में इस घातक वायरस की चपेट में आने लगे हैं।  

इन हालात के मद्देनजर यह सवाल उठना मौजूंं है कि क्या सिर्फ जनता की लापरवाही को ही इस स्थिति के लिये जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए? लाजिमी तौर पर जवाब भी बिल्कुल साफ है कि सरकार की दूरंदेशी नजर का अभाव मौजूदा हालात की तमाम वजहाें में से एक अहम वजह है।

एहतियाती उपाय बरतने के मामले में ऐसा लगता है कि सरकार ने पिछले साल की ही तरह फिर से अड़ियल रवैया अपनाना शुरू कर दिया है। हाल ही में स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन ने भारत में लॉकडाउन नहीे लगाने की घोषणा कर दी है। इससे पहले सरकार द्वारा सामान्य श्रेणी की अनारक्षित रेलगाड़ियों का परिचालन एक अप्रैल से शुरु करने, शिक्षण संस्थान यथावत खोलने और अंतरराष्ट्रीय उड़ानों को भी बहाल करने की तैयारी मुकम्मल हो गयी है। 

भूलना नहीं होगा कि कुछ इसी तरह की जिद अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी समय से लॉकडाउन न लगाने को लेकर की थी। इसका परिणाम कोरोना के सर्वाधिक शिकार अमेरिका में होने के रूप में हमारे सामने है। यूरोपीय देशों, खासकर ब्रिटेन ने भी अर्थव्यवस्था को वरीयता देते हुये अपनी मुद्रा का अवमूल्यन नहीं होने देने की हठधर्मिता दिखाई। वहां भी कोरोना का कहर किसी से छुपा नहीं है। 

यद्यपि हाल के दिनों में वैश्विक अनुभव के आधार पर यह बात सामने आयी है कि लॉकडाउन, कोरोना के संक्रमण की श्रंखला को तोड़ने का एकमात्र कारगर उपाय नहीं है। लेकिन भारत जैसे घनी आबादी वाले अल्पशिक्षित देशों में लॉकडाउन के असर को, अमेरिका और यूरोप की तर्ज पर सिरे से खारिज करना समझदारी नहीं होगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी कोरोना के दूसरे चरण के मद्देनजर आगाह कर चुके हैं कि अगर यह वायरस देश के गांवों तक पहुंच गया, तब फिर स्थिति को काबू में करना आसान नहीं होगा। 

कोरोना के बारे में सरकार को अपने पिछले अनुभवों से भी सबक लेना होगा। याद कीजिये पिछले साल जनवरी और फरवरी में विदेशों से कोरोना संक्रमण की भारत में दस्तक के बावजूद अंतरराष्ट्रीय उड़ानों पर प्रतिबंध लगाने और विदेशों से आये लोगों को हवाई अड्डे पर ही क्वारंटाइन करने में हुयी मामूली देरी ने महामारी की आपदा के द्वार खोल दिये थे। इतना ही नहीं देश में जून 2020 तक सामुदायिक संक्रमण की स्थिति पैदा होने के बाद भी सरकार अंत तक आधिकारिक तौर पर इस सच्चाई को स्वीकारने से कतराती रही। डा हर्षवर्धन ने अप्रैल 2020 में ही मुझे दिये अपने एक साक्षात्कार में दो टूक कह दिया था कि भारत में कोरोना के सामुदायिक संक्रमण की स्थिति न तो पैदा हुयी है और ना ही भविष्य में होगी। जबकि उसी समय कुछ राज्यों के स्वास्थ्य मंत्रियों ने उनके राज्य में सामुदायिक संक्रमण की स्थिति को स्वीकार कर लिया था।  

दरअसल, सरकार को यह समझना चाहिये कि आपदाओं के सामने इंसान की बिसात कुछ भी नहीं है, लिहाजा उसके आगे किसी की हठ नहीं चलती। उलटे इससे नुकसान ज्यादा होता है। संकट को स्वीकर कर ही उससे निपटा जा सकता है। वैसे भी दुनिया कोरोना के जिस संकट से जूझ रही है, अभी भी चिकित्सा विज्ञान के पंडित इस वायरस की पूरी कुंडली भी नहीं बना पाये हैं। स्पष्ट है कि कोरोना के खिलाफ जंग में इंसान की स्थिति उस योद्धा की तरह है जिसे लड़ाई के मैदान में खड़े अपने प्रतिद्वंद्वी का चेहरा मोहरा ठीक से दिखाई भी नहीं दे रहा है।







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