प्रगति सिंह की रिपोर्ट
कोविड-19 महामारी को फैलने से रोकने के लिए लागू लॉकडाउन के बीच एक तरफ़ मज़दूरों का पलायन शुरू हो गया । लॉकडाउन के कारण देश भर में रेल सेवा बंद है और सड़कों पर यातायात भी नहीं है. ऐसे में ये मज़दूर साइकिल पर या पैदल की अपने गाँवों की तरफ़ लौट पड़े हैं । इसके कारण सड़क हादसों सहित अन्य कारणों से तीन सौ से अधिक लोगों की मौत की खबरें आई है ।
वायरस संक्रमण के डर के साये में छोटे छोटे बच्चों को आंचल में छिपाये मां, सड़क पर चिलचिलाती गर्मी में बिना चप्पल के कई सौ किलोमीटर की यात्रा करने नौनिहालों की तस्वीर बरबस ही आंखे नम कर देती है । रेलवे और बस अड्डों की ओर बेतहासा भागते लोग अनायाय ही प्राख्यात कवि दुष्यंत कुमार की उन पंक्तियों को साकार करते दिखते है :-
"कहीं पे धुप की चादर बिछाके बैठ गए, कहीं पे शाम सिरहाने लगाके बैठ गए ।
जले जो रेत में तलुवे तो हमने ये देखा, बहुत से वहीं छटपटाके बैठ गए ।।
खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को, सब अपनी अपनी हथेली जलाके बैठ गए।
ये सोचकर कि दरख्तों में छांव होती है, यहां बबूल के साये में आके बैठ गए ।।"
25 मार्च को लगाए गए लॉकडाउन के बाद हर रोज़ शहरों से हज़ारों की संख्या में मज़दूरों का गांवों की तरफ़ पलायन जारी है. इसे 'रिवर्स माइग्रेशन' का नाम दिया जा रहा है । प्रवासी मजदूरों की बड़ी संख्या को देखते हुए केंद्र सरकार और कई राज्य सरकारों ने ट्रेनों और बसों की ख़ास व्यवस्था की है, हालांकि इसके बावजूद पैदल अपने गांवों की तरफ़ निकल रहे प्रवासियों की संख्या में कमी आती नहीं दिख रही ।
हज़ारों की तादाद में पहुंच रहे मज़दूरों को लेकर राज्यों की चिंताएं अब बढ़ने लगी हैं क्योंकि क्वारंटीन की समायवधि ख़त्म होने के बाद राज्य सरकारों को इनके लिए रोज़गार की व्यवस्था करनी होगी । भविष्य में रोज़गार को लेकर ख़ुद मज़दूर भी चिंता में हैं. हालांकि उनके लिए अभी सबसे बड़ी मुश्किल जीवन और जीविका के बीच के चुनाव की है ।
लेकिन क्या लॉकडाउन खुलने के बाद या फिर कोरोना संकट के टलने के बाद ये मज़दूर वापस काम की तलाश में शहर लौटेंगे?
निखिल डे ने आर्यावर्त टाइम्स बातचीत में कहा-लॉकडाउन के दौरान जिस तादाद में मजदूरों की वापसी हो रही है, ऐसे में मौजूदा समय में सरकार रोजगार के लिए कोई नया ढांचा तैयार नहीं कर सकती है । इस स्थिति में सरकार के पास उनको रोजगार देने का मनरेगा ही एक विकल्प है । "
उन्होंने आरोप लगाया कि पिछले वर्षो में मनरेगा कमजोर हुआ है क्योंकि इसका बजट कम किया गया है। आपदा के समय में इसकी जरूरत और महत्व समझ में आ रही है, ऐसे में मनरेगा में कार्य दिवस को 100 दिन से बढ़ाकर 200 दिन करने की जरूरत है । लॉकडाउन और उसके बाद की स्थिति में मनरेगा योजना ग्रामीण क्षेत्र की जीवन रेखा बन सकती है।
डे ने कहा कि शहरों में कोरोना संक्रमण के चलते फिलहाल अधिकांश उद्योग-कारोबार बंद हैं, ये श्रमिक जो अभी तक अपनी जीविका के लिए सरकार पर निर्भर नहीं थे, अब उनकी ओर बड़ी उम्मीद से देख रहे हैं । ऐसे में मनरेगा को गति देने श्रमिकों को पहले की तरह मजदूरी तो नहीं मिलेगी,लेकिन मनरेगा के तहत इतना पैसा मिल जाएगा कि जिंदगी का गुजर बसर हो सकता है ।
वहीं, सेंटर फ़ॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के ताज़ा आंकड़ों रोजगार की चिंताजनक तस्वीर पेश कर रहे हैं । रिपोर्ट के मुताबिक़, अप्रैल 2020 में ये दर 23.5 फ़ीसदी थी । कंज्यूमर पिरामिड्स हाउस होल्ड सर्वे के अनुसार, अप्रैल 2020 में 11.4 करोड़ रोज़गार कम हुए. कामकाजीलोगों की संख्या मार्च 2020 के 39.6 करोड़ पर आ चुकी थी, जो पिछले चार साल में सबसे कम थी । ऐसे में विशेषज्ञ मनरेगा को रोजगार के एक महत्वपूर्ण माध्यम के रूप बता रहे हैं ।
इस बीच, सरकार का कहना है कि इस वर्ष मई के प्रथमार्द्ध तक मनरेगा के तहत 14.6 करोड़ कार्य दिवस रोजगार सृजित हुए हैं जो पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में करीब 40 प्रतिशत अधिक है ।
विशेषज्ञों का कहना है कि मनरेगा के सामने रोजगार सृजन की परीक्षा बेहद चुनौतीपूर्ण है, खासकर ऐसी स्थिति में जब रबी की कटाई अंतिम दौर में है और जून में खरीफ की बुआई का काम खत्म हो जाएगा । गांव लौट रहे प्रवासियों की संख्या भी काफी बड़ी है. पर यह संख्या कितनी बड़ी हो सकती है, इसका अंदाजा नहीं है । यह संकट और गहरायेगा जब अगले दो महीने में खेती से जुड़े काम खत्म हो जायेंगे ।
वहीं, सीएमआईई की रिपोर्ट में कहा गया कि शहरी इलाकों में बेरोजगारी दर ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक है । लॉकडाउन से दिहाड़ी मजदूरों और छोटे व्यवसायों से जुड़े लोगों को भारी झटका लगा है । इनमें फेरीवाले, सड़क किनारे दुकानें लगाने वाले विक्रेता, निर्माण उद्योग में काम करने वाले श्रमिक और रिक्शा चलाकर पेट भरने वाले लोग शामिल हैं ।
जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता योगेन्द्र यादव ने कहा कि बेरोजगारी दर पिछले वर्ष में बढ़ी है और लॉकडाउन के कारण इसमें काफी वृद्धि देखने को मिल रही है। शहरों से श्रमिकों का गांव की ओर पलायन जारी है, ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों में भी रोजगार पर दबाव बढ़ेगा, जहां मनरेगा रोजगार का एक बड़ा माध्यम रहा है।
उन्होंने कहा कि अब राज्यों के सामने चुनौती यह है कि जो लोग पहले से मनरेगा में काम करते रहे हैं उनके साथ-साथ नए आए प्रवासी मजदूरों के लिए भी रोजगार सृजन करना होगा ।
उन्होंने यह भी कहा कि एक समस्या यह भी है कि प्रवासी मजदूरों में सभी लोग गांव ही नहीं लौटेंगे, उनमें से बहुत बड़ी संख्या छोटे शहरों और कस्बों में लौटने वाले लोगों की भी होगी । सरकार को उनके लिए भी रोजगार का कुछ उपाय करना चाहिए ।
रिपोर्ट में कहा गया कि शहरी इलाकों में बेरोजगारी दर ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक है । लॉकडाउन से दिहाड़ी मजदूरों और छोटे व्यवसायों से जुड़े लोगों को भारी झटका लगा है । इनमें फेरीवाले, सड़क किनारे दुकानें लगाने वाले विक्रेता, निर्माण उद्योग में काम करने वाले श्रमिक और रिक्शा चलाकर पेट भरने वाले लोग शामिल हैं ।
बिहार के हाजीपुर के अजय कुमार कहते हैं, "हम सब बहुत घबरा गए । हमें काम से अधिक परिवार की चिंता होने लगी और अब हम अपने घर लौट कर ख़ुश हैं । हम अब वापस नहीं जाना चाहते हैं. मेरे शहर या गांव में कोई नौकरी मिले तो हम करना चाहते हैं । ’’
अजय कुमार अधूरी पढ़ाई छोड़कर गुजरात के सूरत काम करने चले गए, जहाँ वो एक फैक्ट्री में काम करने लगे । लेकिन लॉकडाउन के कारण उन्हें अपने गांव लौटना पड़ा है । कुमार अकेले नहीं है बल्कि उनके जैसे हजारों श्रमिकों की यही स्थिति है ।
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से टेक्सटाइल यानी वस्त्र उद्योग से 10 करोड़ श्रमिक जुड़े हैं जो कृषि के बाद भारत में नौकरी देने वाला सब से बड़ा क्षेत्र है. दस्ताने, मास्क और कोरोना वायरस से लड़ने वाले दूसरे वस्त्र इसी उद्योग के अंतर्गत आते हैं जिसका मतलब ये हुआ कि ये उद्योग पूरी तरह से रुका हुआ नहीं है.
अब धीरे-धीरे इस उद्योग की दूसरी इकाइयां भी खुलने लगी हैं. क्या इस क्षेत्र में भी मज़दूरों की कमी महसूस की जा रही है?
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