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Thursday May 09, 2024
Aryavart Times

भोंपू का महत्व और अल्सेशियन कुत्तों की जात

भोंपू का महत्व और अल्सेशियन कुत्तों की जात

भोंपू का अपना ही महत्व है । एक जमाना था जब देश में मोटर का ड्राइवर भोंपू को एक वाद्य के रूप में लेता था और पूरी वातावरण में स्वरलहरी गूंजती थी । यह एक छोटा सा यंत्र है जो औद्योगिक युग की देन है । भोंपू हलांकि हारमोनियम-सा सौभाग्यशाली तो नहीं......जो सितार या सारंगी की ऊंची जमात में जा बैठता । पर अपनी जगह स्थिर रहकर भी इसने संगीत की सेवा ही की है । 

भोंपू महफिल से बाहर ही रह गया, अंदर नहीं जा पाया । मोटर से जुड़ा रहने के कारण इसकी सीमा निश्चित थी । ये अलग बात है कि सितार, सारंगी, हारमोनियम ने अपनी महिमा का बखान करने के लिये भोंपू जरूर बजायी । भोंपू बजाने के के कार्यक्रम नियमित तो नहीं चलते, पर फिर भी जगह जगहवे बजते हैं । एक बड़े वर्ग पर इसकी सुखद प्रतिक्रिया भी होती है।

उच्च वर्ग का सांस्कृतिक बोध आम जनवाद्यों को ग्रहण नहीं करता । इसके कारण मोटर के ड्राइवर कभी संगीत साधक नहीं माने जाते । उच्च वर्ग ने मोटर खरीदी, ड्राइवर भी रखे, लेकिन भोंपू को ग्रहण नहीं किया । 

भोंपू कला धीरे धीरे ढलान पर है लेकिन इस कला के पारखी आज भी मौजूद है । ऐसे भोंपू कला के पारखी किसी अच्छे भोंपू बजाने वाले को देख यह कहना नहीं भूलते कि फलां अच्छा ड्राइवर बनेगा और जिकसी भोंपू मीलों तक सुनाई देगी।

अपने जीवन में मुझे कई मशहूर-मारूफ भोंपूबाजों को सुनने का मौका मिला । साफे में सज-धजकर स्टेयरिंग और भोंपू को प्रणाम कर, उनका गाड़ी स्टार्ट करना- ऊफ । अब न वैसी मोटरें रहीं, न वैसे मोटर चलाने वाले । भोंपू के प्रति जो सम्मान का भाव था, ऐसा लगता है कि कम हो रहा है । सारी सड़कें संगीत-विहीन हो गयीं और उसकी जगह ‘‘पीं,पें,पें’’ निहायत असांस्कृतिक लगती है । 

आज भी देश में अच्छे भोंपूवादक हैं, जो यहां वहां बिखरे हैं  । इन्हें चाहे तो टेपरिकार्ड किया जा सकता है । भोंपू बजाने की अखिल भारतीय प्रतियोगिता आयोजित करने के साथ बड़ी मोटरों में भोंपू लगाना अनिवार्य कर इस कला को पुनर्जीवित किया जा सकता है । अभी भी देर नहीं हुई है । कई लोगों का कहना है कि भोंपू को यथोचित सम्मान नहीं मिल रहा है, इतना होने पर भी इसके पारखी कम हैं ?

 

अल्सेशियन कुत्तों की जात होती है । यह शायद कोई अल्सेशियन स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि वह आम कुत्तों से स्वयं को ऊपर मानता है और लगता भी है । आपने अल्सेशियन देखें हैं ? नहीं देखे । इसका मतलब है कि आप बंगलों या सत्ता केंद्र के करीब से नहीं गुजरे । मुझे तो अंदर तक आने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ है और मैंने इन अल्सेशियनों को समीप से देखा है । कई बार तो आवभगत और पुचकारना भी पड़ा । 

कुछ क्षण को मुझे यह भी लगा था कि पशुओं से प्रेम प्रदर्शन के इतिहास मे मैं अपना नाम डलवा रहा हूं, पर सच बात कुछ और ही थी । 

वो मुझे काट सकते थे । मुझे चीर फाड़ सकते थे पर वे अपने मालिक के मन से ऐसा नहीं कर रहे थे । मालिक की नीति यही थी । वे उन्हें अपने आसपास रखकर आतंक उत्पन्न करना चाहते थे और यह मानना पड़ेगा कि वे बड़ी हद तक सफल भी हुए हैं । 

शायद ‘‘भय बिनु प्रीति’’ वाला मामला रहा हो, वे ऐसा इसलिये कर रहे हों कि हम ‘साधारण’... उनके अल्सेशियनों से खौफ खाकर, उनसे भी खौफ खायेंगे या प्रीत रखेंगे । 

बात समझ में नहीं आयी..... मैं अपनी जानता हूं कि अल्सेशियनों से डरता हूं ... वे शाम को बंगले के लॉन पर बैठे, और जब मैं छाता हिलाता उधर से गुजरता हूं तब से मुझपर गुर्राते हैं ... और मैं उस क्षण की प्रतीक्षा में हूं कि मालिक उन्हें मुझपर ‘‘छू’’ करे । मालिक नहीं करता । मालिक की कृपा है । 

अल्सेशियन बड़ा सा होता है । बड़ा घोड़ा सा तो नहीं होता, पर गाय की ऊंचाई तक जा सकता है । कई अल्सेशियन उस ऊंचाई तक गए हैं । जब कोई तनाव नहीं होता, तब वे मुंह खोले रहते हैं और अपने पैने दांतों के बीच लम्बी जुबान निकाले रहते हैं ।

बंगले के लॉन में बैठे वे सड़क पर होने वाली आवाजों  को अपने घुमते हुए कानों से पकड़े रहते हैं । अगर मैं उधर से गुजरूॅं तो वे मेरी चप्पल की फटफट को सुन लेंगे और मैं किस दिशा में जा रहा हूं...उसे भांप लेंगे । फिर वे हल्की सी कनखी से अपने मालिक की तरफ देखेंगे, जैसे वे जानना चाहते हों कि मूड क्या है, आदेश क्या है । ताकि वे वैसा ही करें । 

साभार - साहित्याकर शरद जोशी की कलम से लिखी पंक्तियां







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