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Monday April 29, 2024
Aryavart Times

रेत समाधि.....समरथ को नही दोस गुसाईं

रेत समाधि.....समरथ को नही दोस गुसाईं

 लेखक--रवि रंजन ठाकुर

गीतांजलि श्री के उपन्यास 'रेत समाधि' के अनुवाद को बुकर प्राइज़ मिलने के बाद एक बहस इस बात को लेकर शुरू हो गया है कि औपन्यासिक प्रतिमान से अलग उपन्यास लेखन क्या साहित्य जगत के लिए उपयुक्त है?पुस्तक की सफलता को देखते हुए उत्तर सकारात्मक हो सकता है।लेकिन उपयुक्त मान लेना उचित नही है।देवकीनंदन खत्री के  उपन्यासों ने अगर हिंदी के लिए नए पाठकों को तैयार किया था तो उसके पीछे उसकी पठनीयता निहित थी।इनके उपन्यासों ने कोई पुरस्कार तो नहीं प्राप्त किया लेकिन आज भी हिंदी में यह मिल का पत्थर माना जाता है। लीक से अलग लेखन साहित्य के लिए लाभदायक अवश्य है अगर उसमे पठनीयता हो।साहित्य आमजन के निकट इसी गुण से पहुचता है।

'रेत समाधि' उपन्यास के कथा केंद्र में एक वृद्ध स्त्री चंद्रप्रभा है।इसी के इर्द- गिर्द सम्पूर्ण कथा का ताना बाना बुना गया है।यह भद्र महिला सुसम्पन्न है।इसके पुत्र पुत्री सभी अपने-अपने ढंग से सेटल है।उपन्यास में चंदा ऊर्फ़ चंद्रप्रभा का साथ उसकी बेटी देती नज़र आती है।एक ट्रांस जेंडर स्त्री के कथा में प्रवेश से चंदा में नई ऊर्जा का विकास होता है।वह स्त्री द्वारा स्वयं के लिए जीने के तथ्य को साबित करती दिखाई देती है।कहानी दिल्ली की गलियों से होते हुए बाघा बॉर्डर होते हुए पाकिस्तान के खैबर पख्तून तक पहुचती है यहाँ पता लगता है कि चंदा का पूर्व पति अनवर(एक आलाधिकारी)के पिता है।चंद्रप्रभा इनसे मिलने की जिद करती है।इसी प्रकाण में लेखिका के पाकिस्तान के संगत एवं विसंगत स्थितियों को बड़ी कुशलता से दिखाया है।अनवर के पिता से मिलकर भी चंदा मिल नही पति क्योंकि वह जर्जर बीमार मौत की प्रतीक्षा में होते है।चंदा के संघर्ष को इस प्रकरण से मकाम अवश्य मिलता है लेकिन चंदा का अंतर्मन अतृप्त ही रहता है।

कथा में वृद्ध स्त्री के स्वत्त्व को रचनाशीलता के स्तर पर उभर गया है।यह भारतीय वृद्ध स्त्री के संदर्भ में बहूत कम देखने को मिलता है।विक्रम चंद्रा के चर्चित उपन्यास'सेक्रेड गेम्स'में संकेतिक रूप में ऐसी वृद्ध स्त्री का वर्णन है जो स्मृति विलोप की शिकार है।चंदा का स्वयं के लिए तत्पर होना पाकितान पहुँचकर वहाँ के अधिकारियों से उलझना नाटकीय होते हुए भी एक प्रेरण अवश्य देता है।माँ का साथ पुत्री द्वारा दिया जाना वर्तमान संदर्भ को बताने वाला है।ट्रांस जेंडर की भूमिका महत्वपूर्ण कहि जा सकती है।बाघा बॉर्डर पर विभाजन की त्रासदी पर लिखने वाले साहित्यकारों को याद करते हुए उनके रचित पत्रों को भारत -पाकिस्तान के सन्दर्भ में देखना रोचक प्रतीत होता है।मंटो की कहानी 'कितने टोबा टेक सिंह'के सरदार जी तथा भीष्म साहनी के उपन्यास 'तमस'के जनैल की याद यहाँ विभाजन के त्रासद स्थितियों से अवगत कराता है।दरसल लेखिका ने इनके बहाने से भारत विभाजन को सांकेतिक रूप में प्रस्तूत किया है।पाकिस्तान के खैबर पख्तून का वर्णन अत्यंत रोचक ढंग से यात्रा वृतान्त शैली में किया गया है।जिन लोगों ने ख़ैबर पख़्तून नही देखा हो और पाकिस्तान जा नही सकते वे कच्छ में काला डूंगर को जाकर देख सकते है।कला डूंगर की काली पहाड़ियां, चटान, मौसम,क्षेत्र,मिट्टी इत्यादि ख़ैबर पख़्तून के सदृश है।

उपन्यास में कई ऐसे स्थल हैं जहाँ कथा प्रसंग बिलकुल टूट जाता है।नाटकीयता के समावेश ने इस कथा को बेजान करने का कार्य किया है।कथोपकथन सुगठित नही कहा जा सकता है।यह उपन्यास सहज भाषिक संरचना के बावजूद शिल्प विधान में अत्यंत जटिल है।कथा प्रवाह,चरित्र चित्रण सहज  नही है।संवाद विशेष असर नही छोड़ते।अपने पूर्ववर्ती साहित्यकारों को विभाजन के संदर्भ में गीतांजलि श्री ने जो याद किया है वह बंगला से प्रेरित है।बंगला में ऐसे प्रयोग दिखाई देते है।उपन्यास को पढ़ते हुए बंगला के मैत्रेयी देवी का उपन्यास 'न हन्यते' याद हो जाता है।दोनो उपन्यासों में यह दिखाने का प्रयास है कि प्रेम कभी मरता नही है।'रेत समाधि' तमाम जटिलताओं के बाद भी बुलंदी पर पहुँचता है जबकि न इसमे पठनीयता है न आदि से अंत तक कोई उत्स्कता बनाये रखने की कोशिश है।कथा अपने कलेवर में वृहत होते हुए भी केवल दो तीन पत्रों को प्रमुखता देते हुए अपने कथ्य को स्पस्ट करने की कोशिश करता है।यह ध्यान देने योग्य है।

साहित्य में नए प्रयोग सदा से होते आये है।राजकमल चैधरी की शैली भी उपन्यास के निर्धारित प्रतिमान को तोड़ने वाली है।लेकिन प्रयोग एवं नयेपन के नाम से सम्पूर्ण कथा तंतु को टुकड़ों में विभाजित कर देना जिससे वह साधारण पाठक से दूर हो जाये यह उचित प्रतीत नही होता, काम से कम उपन्यास के लिए तो बोलकुल नही।क्योंकि यह जीवन जगत को व्यख्यायित करता है।इसमें अगर जीवन से जुड़ने की शक्ति न हो तो फिर अपने रचनागत धर्म का निर्वाह मुश्किल है।'रेत समाधि' ने हिंदी का नाम अवश्य रौशन किया है,लेकिन कथागत संदर्भ,रचनाशीलता में अपना प्रभाव छोड़े ऐसा प्रतीत नही होता।गीतांजलि श्री के चर्चित उपन्यास 'माई'की संरचना भी जटिल ही कही जा सकती है।इनके उपन्यासों में कथा साधारण ही होती है लेकिन उसकी बुनावट को असाधारण ढंग से प्रयास करने की कोशिश होती है।यह अवश्य है कि दिगज्ज लेखकों के लेखन को पछाड़ने का काम इस उपन्यास ने किया है।

उपन्यास केवल प्रस्तुति तक सीमित नही है यह जीवन को प्रस्तुत करता है।अतः जनजीवन से जुड़कर जन-जन तक पहुँचे यह आवश्यक है।उद्देश्य की पूर्णता तभी संभव है जब यह कथ्य को जन समूह में अग्रेषित करने की शक्ति रखे।केवल पुरस्कार प्राप्ति से किसी उपन्यास की सफलता-असफलता निर्धारित नहीं की जा सकती है।जन चेतना को सामयिक संदर्भ में विवेचित करते हुए युगीन दृस्टि बोध को प्रदान करने वाले उपन्यास किसी पुरस्कार प्राप्त उपन्यास से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं।

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