फिल्म - गुलाबो सिताबो
निर्देशक - शूजीत सरकार
लेखक - जूही चतुर्वेदी
कलाकार - अमिताभ बच्चन, आयुष्मान खुराना, विजय राज, बृजेंद्र काला
रेटिंग - 3
समीक्षा - प्रगति सिंह
मकान मालिक और किराएदार के बीच के रिश्ते की कहानियां छोटे शहर-कस्बों में ख़ूब सुनने को मिलती हैं। फ़िल्म की कहानी 78 साल के लालची, झगड़ालू, कंजूस और चिड़चिड़े स्वभाव के मिर्ज़ा के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसकी जान जर्जर हो चुकी हवेली में बसती है। हवेली मिर्ज़ा की बीवी फातिमा की पुश्तैनी जायदाद है। इसीलिए इसका नाम फातिमा महल है। मिर्ज़ा लालची ही नहीं काइयां भी है। पैसों के लिए हवेली की पुरानी चीज़ों को चोरी से बेचता रहता है। उसे ख़ुद से 17 साल बड़ी फातिमा के मरने का इंतज़ार है ताकि हवेली उसे मिल सके।
सालों पुरानी 'गिराऊ' हवेली में कई किराएदार रहते हैं, जिनमें से एक बांके रस्तोगी है। बांके हवेली में अपनी मां और तीन बहनों के साथ रहता है। छठी तक पढ़ा है और आटा चक्की की दुकान चलाता है। बांके एक लड़की से प्यार करता है, जो शादी के लिए दबाव बना रही है।
मिर्ज़ा, बांके को बिल्कुल पसंद नहीं करता। उसे परेशान करने के नए-नए तरीके ढूंढता है और हवेली से बेदखल करना चाहता है। जूही चतुर्वेदी ने स्क्रीनप्ले का बड़ा हिस्सा इन दोनों की खींचतान पर ख़र्च किया है।
हालांकि, कुछ जगहों पर यह खींचतान नीरस और उबाऊ लगी है।
कहानी में मोड़ और गति तब आती है, जब मिर्ज़ा एक वकील के साथ मिलकर बिल्डर को हवेली बेचने की तैयारी कर लेता है।
बहरहाल, बांके एलआईजी फ्लैट के लालच में आर्कियोलॉजी विभाग के एक अधिकारी से मिलकर इसे पुरातत्व विभाग को सौंपने की योजना बना लेता है। मगर, बेगम की एक चाल मिर्ज़ा और बांके की योजनाओं पर पानी फेर देती है ।
गुलाबो सिताबो' भारतीय सिनेमा में इस बात के लिए तो याद की जाएगी कि थिएटर्स को गच्चा देकर सीधे मोबाइल स्क्रीन पर पहुंचने वाली यह पहली फ़िल्म है। एक वर्ग के लिये जरूरत गुलाबो सिताबो’धीमी रफ्तार का ऐसा सुंदर और संवेदनशील सिनेमा है जिसका वे इंतजार कर रहे थे ।
अभिनय :
अमिताभ बच्चन को मिर्ज़ा बनाने के लिए उनकी नाक प्रोस्थेटिक मेकअप से लम्बी कर दी गयी है। ढीला कुर्ता और पजामा पहनाया गया है। सिर पर गोल टोपी और आंखों पर मोटे लैंस का चश्मा चढ़ा दिया गया । सदी के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ के लिए ऐसे किरदार निभाना चुनौती नहीं है। इसके बावजूद मिर्ज़ा का किरदार 'पीकू' के भास्कर बनर्जी की तरह गुदगुदाता नहीं।
वहीं निम्न मध्यम वर्गीय परिवार के बांके का किरदार निभाने के लिए आयुष्मान खुराना ने इस फिल्म में अपना गेटअप और उच्चारण बदला है और अपनी निकली हुई तोंद और उसी दर से बढ़ रहे तनाव के साथ भरोसेमंद अभिनय करते हैं । अन्य कलाकारों का अभिनय सामान्य है ।
एक पंक्ति में कहें तब....अमिताभ और आयुष्मान की नपी-तुली अदाकारी ही है, जिसने कई दृश्यों को ढेर होने से बचा लिया ।
निर्देशन की बात करें तब अमिताभ और आयुष्मान को देखते ही ‘पीकू’ और ‘विक्की डोनर’ जेहन में आ जाता है, ऐसे में निर्देशन के मामले में गुलाबो सिताबो कुछ कमजोर लगती है।
शूजीत सरकार के निर्देशन में बनी ‘गुलाबो सिताबो’ की पटकथा जूही चतुर्वेदी ने लिखी है. जूही को साधारण कहानियों में असाधारण बारीकियां पिरोने में महारत हासिल है] इसीलिए वे अपने होमटाउन का किस्सा लिखती हैं ।
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