BY BLOGGER, SENIOR JOURNALIST- NIRMAL YADAV
झांसी .... उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके को कुदरत ने मेहरबान होकर नदी, जंगल पहाड़ और पठार से लेकर तमाम भूगर्भीय संसाधनों की प्रचुरता से भरपूर नवाजा है। लेकिन इस क्षेत्र में प्रकृति के इन नायाब नगीनोें पर खनन माफियाओं की गिद्धदृष्टि पड़ने के बाद, लगता है अब सरकार भी पत्थरदिल हो गयी है। नतीजा, एक एक कर कुदरत के ये गहने काल के गाल में समाते जा रहे हैं।
इस कड़ी में बुंदेलखंड की ऐतिहासिक नगरी झांसी के बीचों बीच स्थित कैमासन पहाड़ के दर्दनाक अंत की दास्तान प्राकृतिक असंतुलन पैदा करने की इंसानी कोशिशों का ताजातरीन उदाहरण है। यह कहानी साल 2015 में शुरू हुयी जब सूबे में पूर्ववर्ती सत्ताधारी दल से ताल्लुक रखने वाले भूमाफियाओं ने कथित तौर पर एक अदालती फैसले के हवाले से कैमासन पहाड़ पर करगुंवा गांव की ओर से सड़क बनाकर आवासीय भूखंड बनाने की कोशिश की। इससे उत्पन्न होने वाले पर्यावरणीय खतरे से तत्कालीन राज्यपाल राम नाइक को अवगत कराया गया। राज्यपाल महोदय ने इस पर संज्ञान लेते हुये तत्कालीन जिलाधिकारी को यथोचित कार्रवाई करने को कहा। पहाड़ को खोद कर सड़क बनाने का काम आनन फानन में रूक तो गया लेकिन इसके साथ ही पहाड़ की लाल मिट्टी के अवैध खनन ने जोर पकड लिया।
दो साल से अधिक समय तक चले अवैध खनन के दौरान नवंबर 2018 में पहाड़ की मिट्टी धंसने से दो मजदूरों की मौत के बाद स्थानीय प्रशासन नेे जमींदोज होते इस पहाड़ से अवैध खनन रोक दिया, लेकिन इसके साथ ही पहाड़ को काटकर विशालकाय आश्रय स्थल और सड़क बनाकर स्थायी कब्जे की कवायद तेज हो गयी। चैंकाने वाली बात यह थी कि शासन प्रशासन खुद इस कवायद का सूत्रधार था। तत्कालीन जिलाधिकारी शिवसहाय अवस्थी ने तो मीडिया द्वारा इस बारे में उठाये गये सवालों के जवाब में यहां तक कह दिया कि यह पहाड़ हरित क्षेत्र में आता ही नहीं है। इसलिये इस पर निर्माणकार्य नियमों के विरुद्ध नहीं है। जबकि पहाड़ के दूसरी ओर सेना के क्षेत्राधिकार वाले हिस्से में मौजूद घना जंगल, इस पहाड़ के वनक्षेत्र से परिपूर्ण होने के साफ सबूत पेश करता है।
बैरहाल, पहाड़ पर सरकार के कब्जे का मामला तूल पकड़ने के बाद भ्रष्टाचार के तमाम अन्य आरोपों में घिरे अवस्थी का स्थानांतरण कर दिया गया। इससे मामला ठंडा जरूर पड़ गया लेकिन पहाड़ को कंक्रीट के निर्माण कार्यों से नष्ट करने की कवायद बदस्तूर जारी रही।
बंुदेलखंड के प्राकृतिक संसाधनों के महत्व पर चित्रकूट में अध्ययन कर रहे पर्यावरण विशेषज्ञ गुंजन मिश्रा ने बताया कि बुंदेलखंड में कंकरीली लाल मिट्टी से निर्मित कैमासन पहाड़ सहित अन्य तमाम पहाड़, प्रकृति की अनमोल देन हैं। विंध्य पर्वतश्रंखला में शुमार इन पहाड़ों की मिट्टी को इस क्षेत्र में ‘मोरंग‘ कहा जाता है। यह मिट्टी ग्रामीण इलाकों में घर बनाने के काम में आती थी लेकिन अब इसे सड़क और अन्य निर्माणकार्यों में भराव के लिये इस्तेमाल किया जाता है। इसलिये मोरंग का व्यापक पैमाने पर अवैध खनन होता है।
मिश्रा ने बताया कि झांसी क्षेत्र में मोरंग के सर्वाधिक छोटे बड़े पहाड़ हैं। इनमें से अधिकांश पहाड़ अवैध खनन की भेंट चढ़ने के बाद सरकार ने अब जाकर मोरंग के खनन को प्रतिबंधित किया है। उन्होंने बताया कि क्षेत्र के स्थानीय नेताओं, खासकर सत्ताधारी दलों के नेताओं का इसके खनन में खासा दखल होने के कारण, सरकार मोरंग के खनन पर प्रतिबंध को कारगर नहीं बना पायी है। आलम यह है कि कदम दर कदम मौत की ओर बढ़ते कैमासन पहाड़ के अंत के प्रति आगाह करती तमाम मीडिया रिपोर्टें भी शासन और प्रशासन की पर्यावरणीय संवेदना को जगा पाने में नाकाम रही हैं।
गुंजन मिश्रा की दलील है कि इस पहाड़ के पर्यावरणीय महत्व को देखते हुये ही शायद हमारे पूर्वजों ने सदियों पहले इस पहाड़ के शीर्ष पर कामाख्या देवी का मंदिर बनवाया था। इसका संदेश साफ था कि इसके धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व को देखते हुये समाज स्वयं इस पहाड़ का संरक्षण करे। उन्होंने बताया कि कालांतर में यह मंदिर और पहाड़ ‘कामाख्या‘ के अपभ्रंश ‘कैैमासन‘ के नाम से प्रचलित हो गया।
पहाड़ पर मंदिर की ओर जाने वाले मार्ग पर मौजूद शिलालेख भी इस बात की ताकीद करता है कि इस मंदिर का निर्माण चंदेलकालीन महोबा के राजा परमार चंदेल ने नौ सौ साल पहले सन 1120 में कराया था।
राजस्व विभाग के दस्तावेजों के मुताबिक कैमासन पहाड़ के एक ओर बुंदेलखंड विश्वविद्यालय मौजूद है और दूसरी ओर करगुवां गांव की बसावट है। पहाड़, जलाशय और जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर सीधे तौर पर सरकार का स्वामित्व होता है। इस आधार पर गांव की ओर पहाड़ का भूक्षेत्र, राजस्व विभाग के दस्तावेजों में ग्राम पंचायत के नाम दर्ज है। इसका फायदा उठाकर गांव के कुछ प्रभावशाली लोगों ने गांव की ओर से कैमासन मंदिर के नीचे की पहाड़ी तक अवैध रुप से भूखंड बेच दिये। नतीजतन पहाड़ के शीर्ष तक मकानों की कतार देखी जा सकती है।
राजस्व विभाग के एक अधिकारी ने पहचान उजागर न करनेे की शर्त पर बताया कि सरकारी दस्तावेजों में दरअसल कैमासन पहाड़ को मिट्टी के टीले के रूप में दर्शाया गया है। इसी का फायदा उठाकर स्थानीय भूमाफिया पहाड़ की जमीन पर प्लाट काटकर मकान बनाने के लिये बेच देते हैं।
इस अवैध निर्माण को जायज बनान में सरकार की जनकल्याणकारी नीतियां मददगार साबित होती हैं। इसके फलस्वरूप ही पहाड़ पर बने मकानों के दोनों ओर पक्की सड़क बना दी गयी, बिजली के कनेक्शन भी दे दिये गये और अब हर घर को पानी मुहैया कराने की योजना के तहत नल का कनेक्शन भी दिया जा रहा है। कुल मिलाकर सरकार जनहित की आड़ में एक आबाद पहाड़ के वजूद को संकट में डालकर पर्यावरण असंतुलन का रोडमैप तैयार कर रही है।
बुंदेलखंड विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो जे वी वैशम्पायन ने बताया कि पिछले साल इस पहाड़ पर सरकार द्वारा कंक्रीट की सड़क बनाने का काम शुरु होने के बाद उन्होंने जिलाधिकारी और राज्य सरकार को पत्र लिखकर अपनी चिंताओं से अवगत कराया था। उन्होंने कहा कि सरकार की ओर से मिले जवाब में बताया गया कि सड़क निर्माण विश्वविद्यालय की जमीन पर नहीं बल्कि विश्वविद्यालय के क्षेत्राधिकार वाले भूक्षेत्र से बाहर किया जा रहा है।
प्रो वैशम्पायन ने कहा कि यहां मामला क्षेत्राधिकार का नहीं बल्कि पर्यावरण संतुलन का है। कोई निजी निकाय या सरकार पहाड़ को काट कर सड़क कैसे बना सकती है।
यह कहानी महज पांच साल में खत्म हुये सिर्फ एक जीवंत पहाड़ की नहीं है। इसी कैमासन पहाड़ के दूसरे छोर पर मौजूद हजारों साल पुरानी एक झील अब अतीत के पन्नों में दर्ज हो चुकी है। कानपुर-झांसी मार्ग पर सैकड़ों एकड़ में फैली यह झील, झांसी शहर का प्रवेश द्वार थी। इतना ही नहीं, कैमासन पहाड़ को स्पर्श करती इस झील की कल-कल करती जलधारायें यहां आने वालों का स्वागत करती थी। आज इस झील की जगह भव्य विवाहघरों, व्यवसायिक प्रतिष्ठानों और मकानों ने ले ली है। प्रकृति के पर्यावास को अवैध कब्जों से तहस नहस करने में भूमाफियाओं के साथ सरकार की अघोषति प्रतिस्पर्धा ने झांसी ही नहीं समूचे बुंदेलखंड को बुरी तरह प्रभावित किया है। खासकर पिछले दो दशक में हुयी इस विनाशलीला की तस्वीरें पूरे इलाके में यत्र तत्र देखी जा सकती हैं।
कानपुर की ओर से झांसी शहर में प्रवेश करते ही देखा जा सकता है कि किस प्रकार से कैमासन पहाड़ को काटकर बनाया गया आकाशवाणी केन्द्र, राज्य सरकार की सहकारी दुग्ध उत्पादन समिति ‘पराग‘ की उत्पादन इकाई और बहुमंजिला आश्रय स्थल, सरकारी कब्जों के जीते जागते प्रमाण पेश कर रहे हैं। इससे उत्साहित होकर अब तक सैकड़ों निजी अस्पताल पहाड़ के वजूद को चुनौती देते हुये इसे कंक्रीट के जंगल से ढंक चुके हैं।
चारों ओर से पहाड़ों और जलाशयों से घिरे ऐतिहासिक झांसी शहर की अप्रतिम भौगोलिक छटा को, अविवेकपूर्ण एवं अनियंत्रित विकास नष्ट करने पर आमादा है। झांसी शहर सहित समूचे इलाके में मौजूद पर्यावरणीय महत्व के प्राचीन जलाशय, पहाड़ और वनक्षेत्र प्रकृति के मनमाने दोहन के कारण दम तोड़ते नजर आ रहे हैं। अगर हुकूमत और हुक्मरानों ने समय रहते इस क्षेत्र में पर्यावरण की इस चिंता को नहीं समझा तो प्रकृति के अवश्यंभावी प्रकोप से बचने के रास्ते शायद नहीं मिल पायेंगे।
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