भारत- चीन के बीच जितने भी संघर्ष हुए उनमें गलवन घाटी केंद्र में रही। अब 45 साल बाद फिर से गलवान घाटी के हालात बेहद चिंताजनक बने हुए हैं। लेकिन कम ही लाोगों को यह पता होगा कि जो घाटी आज दोनों देशों के बीच संघर्ष का केंद्र बना हुआ है, उसका नाम एक चरवाहा गुलाम रसूल गलवन के नाम पर रखा गया ।
गलवान घाटी में चीन और भारत के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई. इस घाटी की ऊंचाई करीब 14000 फीट है और वहां तापमान शून्य से नीचे रहता है । इस घाटी का नाम लद्दाख के रहने वाले गुलाम रसूल गलवन के नाम पर है । किवदंतियों में गुलाम रसूल को कोई डाकू तो कोई चरवाहा कहता है
लेह के चंस्पा योरतुंग सर्कुलर रोड पर आज भी गुलाम रसूल के पूर्वजों का घर है।
भारत-चीन सीमा पर मौजूद इस घाटी का इतिहास देखें तो पता चलता है कि गलवन समुदाय और सर्वेंटस ऑफ साहिब किताब के लेखक गुलाम रसूल गलवन इसके असली नायक हैं। उन्होंने ही ब्रिटिश काल के दौरान वर्ष 1899 में सीमा पर मौजूद नदी के स्रोत का पता लगाया था। नदी के स्रोत का पता लगाने वाले दल का नेतृत्व गुलाम रसूल गलवन ने किया था। इसलिए नदी और उसकी घाटी को गलवन बोला जाता है। वह उस दल का हिस्सा थे, जो चांग छेन्मो घाटी के उत्तर में स्थित इलाकों का पता लगाने के लिए तैनात किया गया था।
कश्मीर में घोड़ों का व्यापार करने वाले एक समुदाय को गलवन बोला जाता है। कुछ स्थानीय समाज शास्त्रियों के मुताबिक इतिहास में घोड़ों को लूटने और उन पर सवारी करते हुए व्यापारियों के काफिलों को लूटने वालों को गलवन बोला जाता रहा है। कश्मीर में जिला बड़गाम में आज भी गलवनपोरा नामक एक गांव है।
गलवन घाटी का नाम लद्दाख के रहने वाले चरवाहे गुलाम रसूल गलवन के नाम पर रखा गया था। गुलाम रसूल ने इस पुस्तक के अध्याय "द फाइट ऑफ चाइनीज" में बीसवीं सदी के ब्रिटिश भारत और चीनी साम्राज्य के बीच सीमा के बारे में बताया है। 1878 में जन्मा गुलाम सिर्फ 14 साल की उम्र में घर से निकल पड़ा था। उसे नई जगहों को खोजने का जुनून था और इसी जुनून ने उसे अंग्रेजों का पसंदीदा गाइड बना दिया। लद्दाख वाले इलाके अंग्रेजी हुकूमत को बहुत पसंद नहीं थे, इसलिए अछूते भी रहे।
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